आज मदर्स डे है.मैं व्यक्तिगत तौर पर प्रेम के किसी भी रूप की अभिव्यक्ति के लिए किसी दिन-विशेष मात्र का पक्षधर नहीं हूँ. मैं समझता हूँ ये बाजारवाद की मांग हो सकती है, पर क्या समय के बदलते सुर ने इसे हमारे समाज की मांग भी बना दी है ? अगर ऐसा है तो फिर से विचार करने की ज़रूरत दीख पड़ रही है. हमारे यहाँ "माँ" सिर्फ और सिर्फ हमारी उत्पत्ति का माध्यम मात्र नहीं है, हमारी श्रीष्टिकर्ता हैं, व्यक्तित्व निर्माण की नींव हैं. यह एक ऐसा रिश्ता है जो पवित्रतम है. इस भूलोक पर अगर कोई ईश्वर की कल्पना करे तो उसे "माँ" में पाया जा सकता है. तभी तो हर उस उस जीव को या प्रकृतिक संरचना पर्यंत को हमने "माँ" कहकर पुकारा है जिसपर असीम श्रद्धा रहा हो. गाय और गंगा भी हमारी माँ हैं.
क्या किसी एक दिन का मेला, उपहार का आदान-प्रदान इस प्रेम को मापने के लिए काफी है? एक दिन क्या, अगर अपनी समस्त उर्जा से अपने पूरे जीवन उनकी आराधना करें तो भी उनके प्रसव पीड़ा तक का ऋण नहीं उतार पाएंगे."माँ" शब्द सुनने में उनकी ह्रदय की तरह ही सरल है पर उसकी गहराई किसी महासागर से कम नहीं. कुछ लोग ये कह सकते हैं की ये सारी बातें समझते हुए भी इस दिन को मनाने में क्या बुराई है... कोई बुराई नहीं पर सिर्फ इस दिन को मनाने में बुराई है. हम एक दिन चंद पैसों से कुछ उपहार स्वरुप खरीदकर भेट कर दें, चाहे और बाकी दिन वो वृद्धाश्रम में ही क्यों न पड़ी रहे, चाहे और बाकी दिन उनके पास तक जाने के लिए हमारे पास फुर्सत न हो, बुराई तब है, परेशानी तब है. वो हर पल , हर क्षण हमारी प्रेम और श्रद्धा पाने की हकदार हैं, सिर्फ और सिर्फ किसी दिन-विशेष पर नहीं. और प्रेम प्रदर्शित करने के लिए बाजारू हथकंडो की जरुरत भी नहीं, स्नेह से भरे नेत्र, और सम्मान से भरे ह्रदय ही काफी है. आज समय जिस तरह से सुर बदल रहा है, कुछ चिंता अवस्य है की क्या प्रेम का यह पवित्रतम स्वरुप भी अपनी गरिमा खो देगा.
हाँ, जिन्होंने जाने अनजाने अपनी माँ को कष्ट पहुँचाया हो, उनकी अवहेलना की हो उनके लिए शुरुआत का आज एक दिन हो सकता है... आज के इस भाग-दौर के जीवन में अगर किसी कारण या मजबूरी वश आप अपेक्षित समय नहीं दे पाते तो आज एक शुरुआत हो सकती है...मगर ध्यान रहे कि माँ को रूखे मन से दिए गए उपहार से अधिक आपका स्नेह और सम्मान प्रिय होगा.
sundar...
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